शायरी
1. मेरे सभी रिश्तेदारों को
ख़ैरियत पूछी नहीं कभी तुमने, तो हम कहाँ से बे-ख़बर हो गए?
फ़रियाद सुनी नहीं कभी तुमने, तो हम कब से हमसफ़र हो गए?
नज़रों में रखा ही नहीं कभी, तो हम कैसे सताया कर गए?
जब तुमने कभी अपनाया ही नहीं हमें, तो “हम” कहाँ से पराया हो गए?
2. To... ummm... someone
आंसुओं की स्याही से तेरी याद की लकीरें बिखर गईं,
ख़ामोश लम्हों में हर आह दबी रह गई।
तुझे अपनी दहलीज़ पर देख वो ख़ुशी मेरी,
तेरी मुस्कराहट की मिठास, वो शबनमी रोशनी मेरी,
अब तो तेरे ख़्वाबों की गलियों में, हर राह धुंधली रह गई।
तेरे बिना मेरी वीरानी, हर साँस में इक ज़ख़्म सा
अब मेरी तन्हाई की बुनियाद बन कर रह गई।
जो थी कभी तेरी बेबाक हंसी -
आज बस याद बनकर रह गई।
3. For mysellf:
दुनिया की भीड़ में पहचान बनाने चला था,
हर निगाह में छुपा दास्तान समझने चला था।
ढूंढ़ने निकला था ज़माने को,
मगर हर रास्ता वीराना लगने लगा था।
पता ही नहीं चला कब खो दिया खुद को,
अब तो आइनों में अपना अक्स तक बेगाना लगने लगा था।
4. For, well, no one... No one at all!
सुबह की शुरुआत होती थी उनकी यादों से,
रातें कटती थीं उनकी बातों से।
अब तो दिन भी अजनबी सा गुज़रता है,
और शब ख़ामोशी की चादर ओढ़े सोती है।
जो कभी साँसें थी, धड़कन थी मेरी,
आज वो बस अफ़सानों में रहती है।
5. The chairs say:
जब तक तुम्हारी हँसी गूँजती थी, मैं तुम्हारे संग आबाद था,
जब तक तुम्हें मेरी जरूरत थी, मैं तुम्हारे साथ था।
अब तुम्हारे लौट आने की आस में, मेरी तन्हाई बेकरार हैं।
कल तक जहाँ किस्से थे, महफ़िल थी, नूर था,
आज सफ़ेदी की चादर में दबी ठंडी यादें बेशुमार हैं।
6. No words:
नहीं भूल पाया मैं वो ज़ायका-ए-शिफ़ाहुन, जो तुमसे बिछड़ गया था,
आज भी हर शाम, तेरी ख़ुशबू मेरे पनाहों में महकती है।
फ़रिश्तों से दुआ है, कि मिल जाए तेरा अक्स जो कभी साथ था,
पर राहें अब वीरान हैं, हर अंधेरे में तेरी आहटें सिसकती हैं।
क्या ज़रूरत थी तुम्हें उस सफ़र में खो जाने की, जब तुम थे मेरे हमसफ़र, मैं हर पल साथ था,
अब शब के सन्नाटों में, बस तेरी परछाइयाँ उदासी में लिपटती हैं।
जब भी ख़्यालों में तेरा जनाज़ा आता है, दिल में गहरा दर्द उठता है,
कि जब भी निकलती है रूह ढूँढ़ने जन्नत, तेरे ही क़ब्र के पास आ भटकती है।
7. Egoistically caring nature of rain didn’t even make me flinch:
ग़ुरूर इतना था उस बरसात में,
उसे लगा बुझा देगी वो मेरी तन्हाई की आग को...
मगर बादल के साए भी बेअसर रहे,
छू न सके मेरे दिल के राख़ होते इस विराग को...
ज़ख़्म ऐसे थे कि तबाही का मंज़र लगते,
बूंदें सरकतीं, मगर फ़ना हो जातीं, ज़मीं छूने तक ही...
वो समझी थी क़तरे मरहम बन जाएँगे,
पर हर बूंद बस बढ़ा गई इस फ़रियाद को...
वो जलाती रही अपनी अफ़रोज़ से, मैं जलता रहा अपनी लौ में,
आखिर छोड़ आया हवाओं के हवाले अपनी मुराद को
ⓒ Kaustubh
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